पुष्प तू कितना सुकोमल।।
पुष्प तू कितना सुकोमल।।
आसूयें बहती नहीं,
तेरे सजल है नेत्र निर्मल।।
पुष्प तू कितना सुकोमल।
है किलकता सा तू लगता,
पत्तियों बिच बस रहा,
मुग्धा कर देता सभी को,
जब बना सुमधूर माला।
देखता नित्य सूर्य को हैं,
लाल चेहरा लाल मुख है।
आकृति है तेरी गोल सकल,
खिलता है तू रोज अबिरल।।
पुष्प तू कितना सुकोमल।
तेरी नव कोमल अधखिली कली ,
कुछ बन्द सिथिल कुछ पंखुड़ी खुली।
देख द्रवित होता है मन ,
जीवन का ऐसा रुप सुमन।
तेरे स्पन्दन मे गीत भरा,
तेरी पंखुड़ियों मे संगीत भरा।
तेरे मन में है राग विमल,
तू लगता हैं कितना विहवल।
पुष्प तू कितना सुकोमल ।
तेरे तन मे यह आशा है,
मन मे तेरे अभिलाषा हैं।
पहुंचे हम एक दिन जा उस पथ,
रणभूमि को जाती हो जो पथ ,
शिश झुकाकर करूँ समर्पण,
तन को अपने कर दू अर्पण।
विजय ज्योति जले अबिरल।
पुष्प तू कितना सुकोमल।।
धंन्य धरा हो जायेगी,
मुझको मातृ बुलायेगी,
सौगंध मुझे इस मिट्टी की,
बलि के बेदी चढ जाउंगा।
जीवन जबतक मेरा होगा,
मै राष्ट्रगान दोहराऊंगा।।
चाह मेरी बस इतनी हैं,
झुकने ना पाये माँ का आंचल।।
पुष्प हूँ मै थोड़ा सूकोमल,
पुष्प हूँ थोडा सुकोमल।।।
The author of the appropriate poem is Rajesh Mishra